तकलीफें हार मान जाती हैं / शैलजा पाठक
अस्पताल के किसी उदास सफ़ेद बिस्तर पर
नीली पीली कड़वी दवाइयाँ गटकते हुए
मैं जोर से मुठ्ठियों में कसती हूँ
तुम्हारा हाथ
कई बार मैं दिवार की टेक लगा कर लेती हूँ सुस्त लम्बी सांस
तुम्हारा हाथ मेरी पीठ पर तसल्ली लिखता है
मूर्खता तो ये देखो की पलट कर ली गई शीशियों की दवाई में मैं सोचती हूँ तुम्हारा कोई हिस्सा बस अभी छन से मेरी कमर में चुभेगा
एक मीठे दर्द से करवट बदलूंगी
और मुस्कराती हुई सो जाउंगी
सुबह मेरी चप्पले बिलकुल सीधी मिली मुझे
मैं बिस्तर से उठकर तुम्हारी हथेलियों पर चार कदम चलती हूँ
जरा जल्दी थक जा रही इन दिनों
हरे पर्दे की खिड़की को एकटक देखती हूँ
और एक यात्रा में तुम्हारे साथ चल पड़ती हूँ
कितना हरा होता है वो रास्ता जिसमे डूब कर निकल जाते हैं हम
एक फोटो में कुछ फूल हैं कुछ रास्ते
एक आसमान में घुप्प गहरे काले बादल
जमीन से कितने सटे से होते हैं न
तुम मुठ्ठी भर बादल उछालते हो
मैं छपाक से भींग जाती हूँ
नींद में सरक गई चादर को तुम गले तक ओढाते और कह जाते हो
जल्दी से ठीक हो जा लड़की
मेरी थपकी से भिजते तुम्हारे माथे की शिकन
मैं तो चूम के निकल जाती हूँ हर रोज़
नींद भर कसमसाते से तुम
प्रेम रूह में बसा हो न
तकलीफें हार मान जाती हैं...