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तप रे मधुर-मधुर मन / सुमित्रानंदन पंत
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तप रे मधुर-मधुर मन!
विश्व-वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्ज्वल औ’ कोमल,
तप रे विधुर-विधुर मन!
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर-मन!
तेरी मधुर-मुक्ति ही बंधन,
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन,
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर-मन!
रचनाकाल: जनवरी’ १९३२