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तप्तगृह / सर्ग 10 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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कोणक से मिलने में
प्रतिबन्ध कोई भी
था न देवदत्त पर
छूट प्राप्त उसको थी
भीतर प्रासाद के
सर्वत्र जाने की।
ऐसा प्रभाव था
कोणक पर उसका!

लेकर आधार इसी
आज्ञा का भिक्षु गया
कोणक जिस ठौर था
लीन आत्म-ग्लानि में
अँटता न हर्ष था
उसके मन-प्राण में,
भावों के नृत्य से
रोम-रोम पुलकित था,
साँस-साँस झंकृत थी,
आँखों की राह से
जीत कढ़ी आती थी
क्रूर उन्मादिनी
जिसकी भयावनी
छाँह, मुस्कान की
रेखा बन हिलती थी
बार-बार होठों पर!

सचमुच थी जीत हुई
भिक्षु के कुचक्र की,
जीत हुई भारी थी
उसके षड्यंत्र को
और इस जीत के
रक्त-भरे चरणों के
नीचे थी लोट रही
देह बिम्बसार की
ज्वाला में क्षार हो
क्रूर तप्तगृह की!

जीत यही भारी थी
जिसके आधार में
बैठी थी भिक्षु की
कुटिला कुमंत्रणा
जिसका प्रत्येक कण
मद-कल मद-विह्वल था
जिसकी सम्पूर्ण कथा
गुंजित थी चीख से
स्पंदित थी पीड़ित के
गहरे उच्छ्वास से
जिसका प्रत्येक वर्ण
लोहित था रक्त से
टपका जो भूमि पर
हिंसा की जीभ से
और इसी जीत का
लेकर संदेश वह
कोणक के पास था
पहुँचा उमंग से
था न पुत्र-जन्म का
वैसा महत्त्व कुछ
उसके विचार में

ग्लानि-भरे कोणक ने
शीश जब उठाया निज
लाल-लाल आँखें थीं
दीख रहे जिनमें थे
अश्रु-कण लज्जित-से
व्यग्र ढुलक जाने को,
किंतु रुक जाते थे
जाने थी कौन-सी
कैसी विवशता।

सम्मुख था भिक्षु खड़ा
दृष्टि पड़ी उस पर जब
कोणक की कल्पना
सिहर उठी, भावों की,
देख प्रतिद्वन्द्विता।

आँखों में भिक्षु की
हिंसक उन्माद था
लपटें ले आग की
कोणक की आँखों में
नीरव विषाद था
जिनमें न ज्योति थी
चमक थी न ईषत भी

रक्तप उल्लास का
आँखों में भिक्षु की,
गहरा उच्छ्वास था
मूर्च्छित-सा कोणक की
आँखों की कोर में।
दम्भी दुस्साहस था
आँखों में भिक्षु की
अपने से ऐंठा-सा
और उफनाता-सा

प्रश्न एक निष्प्रभ था
कोणक की आँखों में
उत्तर की आशा थी
पहले ही खो चुकी
आँखों में भिक्षु की
कठोर वर्त्तमान था,
कोणक की आँखों में
जलता अतीत था,
और वर्त्तमान था
आँखों से भिक्षु की
उसको निहारता।

आँखों में भिक्षु की
परिणति थी नाचती
जीत आँक रक्त-भरी
चूनर की चमचम में
कोणक की आँखों में
करुणा थी भींगती
जिस प्रकार ग्रीष्म की
भींगती विभावरी!

खोया-सा मूक-सा
डूबा-सा ध्यान में
कोणक निस्तब्ध रहा
एकटक निहारता
किंतु देवदत्त यों
बोल उठा उससे
”आया है भिक्षु आज
मागध-सम्राट को
देने बधाइयाँ
जय हो सम्राट की
बार-बार जय हो!
मेरा विश्वास है
मेरी ही वाणी यह
कल के इतिहास की
ज्योति बन जायगी
और पृष्ठभूमि में
जीत यही आज की
बैठेगी गर्विता!“

शब्दों से भिक्षु के
जाग उठा कोणक के
निर्निमेष नयनों में
विस्मय विवेक का
पूर्ण कोलाहल से
और एक भोली-सी
शंका के स्वर में
पूछ दिया उसने
”कैसी वह जीत है
भिक्षु! आप कहते हैं
जीत जिसे आज की?
देख नहीं पाता हूँ
जीत कोई मैं तो

धारण अब करता हूँ
राजमुकुट मैं ही
सत्य है; परन्तु, यह
बात हुई कल की
मागध-साम्राज्य अब
चरणों में लोटता
किंतु बात यह भी है
कल की ही भिक्षुवर!
जीत नहीं आज की
कोई भी सामने।
यह क्या मैं देखता
आँखों में आपकी?
कैसी विचित्र ज्योति
बेसुध-सी झूमती?-
सचमुच वह ज्योति है?
अथवा है आग, या कि
ज्वाला है, लाल-लाल
लपटों-सी रक्त की
या कि एक...यह क्या है-
भिक्षु! क्यों इस प्रकार
आँखों में जादू का
खेल आप खेलते?“
व्यंग्य किया भिक्षु ने
”जादूगर कौन है
मैं हूँ, या स्वप्न वह
जिसके संकेत पर
कोणक थे नाचते
जिसकी पुकार सुन
कोमल कुमार द्रुत
दौड़े उन्मत हो
जैसे है दौड़ता
नदियों का गर्व रौंद

गर्जनमय वेग से
झंझानिल उग्रतम
जो कुछ भी सामने
अया विध्वस्त हुआ
एक ही विरोध था
पथ में कुमार के
वृद्ध, किंतु, ओज-भरा
जर्जर-सा, किंतु, पूर्ण
ज्वाला से तेज की;
किंतु तेज कोणक के
भाग्य का प्रखरतर था
और वह विरोध भी
आज प्राण-हीन है,
आज तप्तगृह में बस
बन्द एक शवहै!“

कोणक की गर्व-भरी
आँखें इस भाँति खुलीं
मानो पलक एक
छूती हो अम्बर को
धरती से पिकी हों
फैलकर दूसरी
और कढ़ी आती हो
लक्ष-लक्ष चीख-भरी
जलती चिनगारियाँ!
कोटर से आने को
बाहर थीं दीख रहीं
व्यग्र-सी पुतलियाँ!

प्रतिपल मस्तिष्क में
कोणक के उठते थे
कितने विचार और
उसके उर-सिंधु को
प्रतिपल थे मथते
किंतु देवदत्त के
व्यंग्यपूर्ण उत्तर ने
झोर, झकझोर दिया
नव-जात प्रेम को
प्रथम-प्रथम फूटा था
जो कि पुत्र-जन्म के
ऊर्म्मिल उल्लास से
गरज उठा वह अधीर
जैसे प्रचण्ड मेघ
गर्जन कर उठता है
निर्मम प्रभंजन के
तीव्र कशाघात से
व्याकुल हो, व्यग्र हो!

बोला वह-”कहते हैं
आप जो, असंभव वह,
बिम्बसार जो कुछ हों,
किंतु पिता पहले हैं,
आज पिता मैं भी हूँ,
तप्तगृह आज नहीं
बाधक बन सकता है
उमड़े वात्सल्य के
करुणामय मार्ग में।“

और बोल इतना ही
कोणक कुछ वेग से
बाहर की ओर बढ़ा।
देख उद्वेग यह
उसके मन-प्राण का
देवदत्त बोल उठा
अति कठोर स्वर में
जिसमें था अट्टहास
गूँज रहा व्यंग्य का
”बन्द तप्तगृह में था
राजा, आदेश से
राजा, के, सत्य यही।
आज बड़े भावुक-से
कोणक हैं दीखते!
भावुकता नारी है
सबको वह देखती
पुत्र, पिता, बन्धु और
भ्राता के रूप में।
कहता है किंतु सत्य
राजा को राजा हो“

किंतु रुके कोणक के
पैर नहीं एक पल,
मानो उपेक्षा का
क्रुद्ध भाव चलता हो
दम्भ को चुनौती दे
पथ पर आवेश के!
सोचा देवदत्त ने
कोणक का जाना भी
सत्य एक भारी है
ग्रीष्म की लपटों से
प्रबल बवंडर जो
तन झुलसाता है
फूलों का, कलियोें का,
आह-भरी धरती का,
संध्या की साँस बन
देता है शांति वही
किंतु फिर पूर्ववत
साथ सूर्योदय के
उग्र बन जाता है!
जाने दो कोणक को,
सारा भविष्य है
मुट्ठी में मेरी ही!