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तप्तगृह / सर्ग 3 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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धन्य भूमि भारत की
वैभव-विभूतिमयी
धर्म-घृति-धारिणी
जग-जन-मन हारिणी
लसित गुण-गरिमा से
महिमा से विलसित सित
सुघर मधुरिमा से
मंडित, मधुर-मंजु,
मंजुल, मनोज्ञ
स्वर्गादपि गरीयसी
वरीयसो नमस्य
चिर-वन्दनीय कह के
वाणी के पुत्रों ने
वेदों के स्वर को ही
सादर दुहराया है
आजतक विमुग्ध हो
इसके यश-गान में

किंतु मैं प्रशस्ति-गान
बार-बार गाता हूँ
इसके उस धैर्य का
खंड-खंड होकर भी
अविचल अखंड जो।
कहता इतिहास है
एक ही हिलोर में
कितने नगर-ग्राम
जन-पद समेटकर
तुष्ट किया झूम-झूम
धरती के क्रोध को
अतल महासिंधु ने
प्रलय-रूप धारण कर।
ज्वालामय ज्वालामुख
दाहक अंगार इसी
क्रोध के उगलते!

किंतु भूमि भारत की
दयामयी, क्षमामयी
निकली थी सागर के
अन्त-हीन गर्भ से
पालने मनुष्य को
समष्टि को संँभालने
और वही मानव तब
गौरव-मद-मत्त हो
माता धरित्री का
कोमलतन, कोमल मन
रक्तप-सा बार-बार
हाय, लगा रौंदने!

हिंसक प्रवृत्ति यही
थी प्रधान एक मात्र
बीच कुरुक्षेत्र के
जिस ठौर उद्धत-सा
पशु-बल था नाचता।
धर्म था छिपा हुआ
धरती के आँसू में
लुटती नय-नीति की
सारी मर्यादा थी
होता प्रहार था
गौरव पर, स्नेह पर,
श्रद्धा पर, भक्ति पर,
त्याग पर, तपस्या पर,
लज्जा की लाज पर

ज्वाला जब परिणति की
सुलग उठी धू-धू कर
स्वाहा सर्वस्व हुआ
रक्त-लिपि शेष रही
हिंसा के पृष्ठ पर!

विस्मय की बात क्या
खड्ग तब उठाया यदि
मद-मत्त कोणक ने
राज्य-सिंहासन के
प्राप्ति-हेतु गर्व से?
स्वार्थ एक दानव है
जिसकी परिणीता है
हिंसा रक्तांजना।
साक्षी है ध्वंस के
अनुचर-तूफान, जल-
प्लावन, भूकम्प और
अशनि-पात, दावानल
बड़वाग्नि गर्जनमय।
सहमे थे एक बार
स्वयं ही विधाता भी
मानव-मस्तिष्क के
खप्पर में रक्त घोल
स्वार्थ ने किया था जब
अंकित सोहाग-चिह्न
हिंसा की माँग में
अंग में समेट कर!
स्वार्थ एक जादू है
काला, कलंक-सा
भीषण पिशाच-सा
स्वार्थ एक ज्वाला है
रौरव के कुण्ड की
जिसमें चुप जलती है
करुणा की भावना,
मंगल समष्टि का,
भविष्य मानवता का,
जनता का, जन का,
मगध इसी ज्वाला में
दिन-रात जलता था!

बैठे थे बिम्बसार
दृष्टि निष्पलक डाल
कुशला के मुख पर
रानी गंभीर थी
आयत दृग उसके थे
धरती को हेरते
स्यात कोई प्रश्न था
मागध सम्राट और
रानी के बीच खड़ा
दुर्गम-दुरूह-सा
नीरव विरोध था
रानी का बोलता
मुद्रा में उसकी
मृदु-हास-मंडित थे
होंठ बिम्बसार के
मानों तपन-ताप-
तप्त भूघ्र ईषत हँस
कहता हो स्नेह से
पुकार कर वर्षा की
पहली बयार को
”जलकर भी अविचल में
मेरे गाम्भीर्य की
साँसों में जाओ भर
तुम तो हो शीतल
सुमंद-गंध-वाहिनी!“

तने में द्वार खुला
भीतर प्रवेश किया
कोणक ने निर्भय-सा
और हुआ एक पल
विस्मित उस ठौर पा
माता की अपनी
बैठ गया एक ओर
इंगित पिता का पा
रानी की दृष्टि गड़ी
नीचे पूर्ववत थी।

स्वर में गम्भीर अति
पूछा सम्राट ने
”चाहते कुमार क्या
प्यार निज पिता का
दुलार जननी का या
गौरवमय स्वर्ण-मुकुट
मागध-सम्राट का?
उत्तर कुमार का
चाहता मगध है
चाहता मगध का
भविष्य मेरे स्वर में।“

शीघ्र उठ खड़ा हुआ
कोणक प्रश्न सुनकर
मागध-सम्राट क
त्वरित दिया उत्तर
रुका न एक क्षण भी।
ऐसा प्रतीत हुआ
प्रश्न बिम्बसार का
पहले से ज्ञात था
और निजपथ पर वह
अविचल था, दृढ़ था
बोल उठा निर्भय हो-
”खड्ग चाहता हूँ मैं
एकमात्र खड्ग ही
इसके सहारे ही
सब कुछ मिल सकता है
राज्य-सिंहासन तो
इसके संकेत पर
लुटता है झुकता है!
मेरे संकल्प का
तेज यही दिव्य है
खड्ग यही मैंने
सहर्ष अपनाया है
और यही प्रिय है
सम्राट के मगध को।“

स्वर में सम्राट के
निमर्म-सा तर्क ने
पूछा तड़ाक से-
”तो है स्वीकार तुम्हें
आए थे खड्ग ले
मागध-सम्राट के
कक्ष के समीप तुम्हीं
उनका करने को?“

कोणक ने उत्तर दिया
पत्थर के स्वर में-
”मैं ही था, सत्य है
और यही खड्ग था
मेरा उद्देश्य था
हत्या सम्राट की।“

सुलग उठा क्रोधानल
कुशला के मन में
आँखों से फूट पड़ीं
सौ-सौ चिंगारियाँ
काँपने शरीर लगा
होंठ लगे डोलने
बोलने की शक्ति लगी
प्रलय-द्वार खोलने
किन्तु संकेत कर
आँखों से रोक दिया
धीर बिम्बसार ने
दता है रोक ज्यों
उद्भट अकूल-कूल
कूल-हीन कुल्या के
आकुल कल्लोल को,
और स्वयं बोला वह-
”केवल न खड्ग ही
तुमने उठाया है
तुमने उठाया है
प्रश्न एक भारी
उत्तर यदि चाहूँ तो
दे दूँ मैं पल में
चाहता, परन्तु, मैं
उत्तर भविष्य दे
तुमको इतिहास के
पृष्ठों में बोलकर

”तुमने सम्राट का
चाहा वध करनौ
घोर राजद्रोह यह
और तुम वध्य हो
डाकू-सा लूटना
चाहा सुहाग निज
माता का तुमने
मानवता-द्रोह यह
जिसका कलंक नहीं
मिटता है दण्ड से
मृत्यु भी न सकती धो
कालिख को जिसकी

मैं हूँ सम्राट किन्तु
आँखें पिता की हैं
बार-बार हेरतीं
तुमको जो प्यार से।
इच्छा थी, देखूँ मैं
अपने को तुम में
किन्तु दीख पड़ता है
तुममें पिशाच उस
क्रूर देवदत्त का!
देवदत्त काला है
काली है छाया भी
वैसी ही उसकी
किन्तु तुम्हें प्यारी है
इसका ही दुःख है

”फिर भी तुम पुत्र हो
पुत्र कुशला के हो
चाहती कुशल जो दिन-
रात प्राणिमात्र का
आओ, लूँ, चूम मैं
खड्ग वह तुम्हारा
उस पर न्योछावर यह
मागध-साम्राज्य है
अंग में, मगध में
आज से तुम्हारा ही
सर्वत्र शासन है
चारों ओर कर दो
सहर्ष यह घोषणा
”किन्तु मत भूलना
शासन का तन्त्र हो
कोई भी, किन्तु जब
जाता बलवत्तम हो
स्वार्थ, तब प्रवंचना
लिखती है रक्त से
उसकी कहानियाँ।“