भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तप्तगृह / सर्ग 4 / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोणक के मौन का
अर्थ नहीं मौन था
वह तो विस्फोट के
पहले का मौन था
आकुल उफनाता-सा
प्रतिपल धुआँता-सा!

की थी बिम्बसार ने
स्नेहमयी भर्त्सना
किंतु लगी कोणक को
तीखी और कटु वह
मन में, मस्तिष्क में
आँधी लगी क्रोध की
हाहाकार करने
हाहाकार करती है
जैसे बरसात की
वेगमयी क्रुद्ध धार
सम्मुख विलोक कर
मिट्टी के बाँध को।

कोणक रण-लिप्सु था
उग्र उद्दण्ड था
हिंसक प्रवृत्ति का
पोषक प्रचण्ड था
खड्ग उसे प्यारा था
जिसने जयकार किया
उसके इस खड्ग का
प्यारा था वह भी

प्यारी इसी कारण थी
उसको विभीषिका
प्यारी जिगीषा थी
और महाक्रांति वह
आती सवेग जो
आँधी पर नाश की
और नृत्य करती है
शव पर उन फूलों के
जो कि कभी कोमलतम
सुन्दरतम, पावनतम
स्वप्न थे मनुष्य के।

शब्द बिम्बसार के
यद्यपि उद्गार थे
कोमल ममत्व के
किंतु लगी कोणक के
क्रूर अहंकार को
ठेस एक गहरी
उसकी प्रतीत हुआ
मानो प्रत्येक शब्द
देता चुनौती है
उसके पुरुषत्व को
मानो प्रत्येक शब्द
करता अपमान है
उसके व्यक्तित्व का

उसको न मान्य था
अन्य का प्रभाव कभी
उसको न मान्य था
सादर स्वीकारना
वस्तु कभी दान की।
बल का उपासक वह
खड्ग का पुजारी वह
चाहता न था कभी
कोई भी बाधक हो
सपनों की पूर्ति में
क्योंकि इन्हींसपनों में
अन्तहीन इच्छाएँ
उसकी थीं खेलतीं
जिस प्रकार अम्बर के
नीले परिधान की
छाया में हो विभोर
तारे हैं खेलते।

थी असह्य कोणक को
करुणा सम्राट की
और इस करुणा ने
ईंधन का काम किया
भड़क उठा दावानल
क्रोध का कुमार के,
हृदय लगा गिरिव्रज का,
घुल-घुल कर जलने

भूल प्रेम, आदर को
श्रद्धा सनेह को
भूल मर्यादा को
भूल मानवता को
ग्रहण किया खड्ग था
जिसने विरोध में
पूज्य निज पिता के ही
प्रश्न भाइयों का, या कि
जनता का, जन का
सम्मुख न उसके था
किसी भाँति उठता।

विह्वल, ह्वल, शीलवंत
दर्शक, विमल आदि
भाई थे कोणक के
भाई था अभय भी
पुत्र वैशाली की
शोभा का स्नेह-भरा।
क्रूर प्यास शोणित की
कोणक के गर्व की
दौड़ी उन्मत्त हो
सर्वनाश संग ले
भीषण आतंक से
सब-के-सब काँप उठे!

मौन है इतिहास है,
पूछा था उस दिन पर
मैंने समीप जा
गिरिव्रज के शून्य से,
पूछा था बुद्ध के
वीर महावीर के
चरणों की धूल से
उड़तीजो आज भी
वायु की हिलोर में
चूम-चूम गिरिव्रज की
सोई हुई ज्योति को,
झरनों की धार से
नीरव पुकार से
तुंग-गिरि-शृंग की
शोभन-वन-पंक्ति से
मैंने यह पूछा था-
”शीलवंत आदि क्या
कायर थे, क्लीव थे?
शौर्य नहीं रक्त में
उनके था कौंधता?”
उत्तर गम्भीर मिला
सब से बस एक ही
”श्रंयस था पुण्य-मार्ग
गौतम के धर्म का
श्रेयस था पुण्य-पंथ
वीर वर्द्धमान का
शीलवत आदि को
श्रेयस ही मान्य था
मान्य थी न श्रेष्ठता
सत्ता की, राज्य की
वैभव-विलास की
अथवा प्रभुत्व की।“

किसका विरोध और
हेतु क्या विरोध का?
काया में जिसकी हो
दौड़ रहा वेग से
एक ही पिता का
अनुराग-भरा रक्त उष्ण
अशुभ उसी भाई का
तुच्छ साम्राज्य-जन्य
सत्ता के हेतु था
मान्य नहीं उनको
ऐसे विरोध को
मानकर नृशंसता
उन्होंने भिक्षु-वृत्ति
जाकर स्वीकार की
पावन शरण में
अर्हत की, बुद्ध की!

उनके इस त्याग पर
धीरे से रो उठीं
आँखें सम्राट की
और निकल कंठ से
उनके उच्छ्वास एक
आया उदास लौट
कोणक के पास से
फिर भी न बन्द हुआ
बलि-यज्ञ उसका!

गिरिव्रज के सुन्दरतम
निर्झर के कूल पर
देवदत्त बैठा था
कोणक के पास ही
शोभित था सम्मुख ही
वह ललाम शैलराट
जिसका हृदय चीर
फूट पड़ा निर्झर था
निर्मल संगीत के
उज्ज्वल कल उत्स-सा
और था प्रफुल्लित हो
बहता उमंग से
भरता तरंग-रंग
कण-कण में तीर के।

अकस्मात निकल पड़े
कोणक के मुख से
शब्द उल्लास के
”बहता इसी प्रकार
स्वच्छन्द कोणक भी
विघ्नों का दर्प कर
चूर-चूर विजयी-सा
बहता है और वह
बहता ही जाता है,
लहरों-सी नाचतीं
इच्छाएँ मन की
दोनों असीम हैं
तान मन-नभ का
प्रतान अभिलाषा का
आशा की उच्चतम
उड़ान भी असीम है
सबको समेट कर
साँसों के कम्पन में
बहता है कोणक और
बहता ही जाता है
उधर बढ़ा आता है
स्वागतार्थ हाथ जोड़
शोभन भविष्य बिना
रथ के अधीर हो
नीरव आचार्य हैं
क्योंकि उन्हें लगता है
यह सब दुरूह-सा!“

और फिर अट्टहास
गूँज उठा कोणक का!

देवदत्त बोला यों
”सम्मुख वह शैलराट
मूर्त अभिमान-सा
बैठा है वक्ष तान
केन्द्रित कर अपने में
जीवन-बल निर्झर का
उसके नियंत्रण में
वह समग्र कोष है
जिसका अनुवाद-भर
वह प्रमत्त निर्झर है
जिसकी हिलोरों पर
बहते कुमार हैं
किंतु यदि शैलराट
खोले न कोष तो
होगा क्या कुमार का?
नीरव कुमार हैं
क्योंकि उन्हें लगता है
यह सब दुरूह-सा!“

और फिर अट्टहास
गूँज उठा भिक्षु का

कोणक का उत्तर था
”भिक्षुवर भूल रहे
कोणक कुमार नहीं
अब वह सम्राट है
मागध-साम्राज्य के
भाग्य का विधाता है।“

व्यंग्य किया भिक्षु ने
”कोणक कुमार हैं
केवल कुमार ही।
भाग्य का विधाता
सम्राट शैलराट-सा
क्योंकि अधिकार में
कोष है उसी के
जिसके अधिकार में
रहती है राज्य-श्री
वस्तुतः वही तो
सम्राट कहा जाता है।
पास मात्र खड्ग हो
जिसके, न कोष हो
मगध उसे ‘श्रेणि-बल’
कहकर पुकारता!“

शासन मगध का वह
कैसा विचित्र था!
राजा था, राज्य था
जन-पद थे, जनता थी
किन्तु नहीं कोई थी
शृंखला समाज में
चाँदी और सोने के
टुकड़ों पर हाट में
होता था मोल-जोल
पौरुष का, शौर्य का।
राजा की इच्छा के
तृप्ति-हेतु बिकता था
पानी तलवार का
नीति साम्राज्य के
अनुदिन विस्तार की
मूल्य मनमाना दे
खुलकर थी खेल रही
धज्जियाँ उड़कर
प्राचीन आर्य-नीति की
‘श्रेणि-बल’ सर्वप्रिय
नारा था युग का,
सैनिक मनोवृत्ति यही
व्यापक सर्वत्र थी
छाई कुहासा-सी
आशा के वन में
और अभिलाषा की
भाषा में, भाव में
उड़ते थे अग्नि-कण।

चम्पा पर, अंग पर
गिरिव्रज पर शासन था
कोणक का, पाया था
उसने अधिकार यह
बिम्बसार से ही!
किन्तु था नियंत्रण
समस्त राज्यकोष पर
स्वयं बिम्बसार का।
व्यंग्य देवदत्त का
समझ लिया कोणक ने
किन्तु रहा मौन ही।

बोला पर देवदत्त
”नीति नहीं देखी थी
जैसी कुमार की!
‘श्रेणि-बल’ बिकता है
दिन-रात हाट में
आदर या श्रद्धा से
आता न पास वह
उतना ही क्रूर वह
जितने आकर्षक हैं
सपने भविष्य के
राज्य-कोष दोनों को
सकता है मोल ले
किन्तु तलवार ही
पूँजी कुमार की
खंड-खंड होने को
उठती जो गर्व के
कर में अकेली।“

और लगा देवदत्त
एकटक देखने
निर्झर के वेग को
कोणक न बोला कुछ
किन्तु कुछ बोल गई
उसके मुख-मंडल की
रेखाएँ गूढ़-सी
और उठा गूँज-सा
परिचित संकल्प एक
क्रूर देवदत्त की
आँखों के तेज में
देख तप्तगृह को।