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तब ऒर अब / विनोद पाराशर

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तब तुम थे
लगता-
मॆं हूं
तुम हो
ऒर कुछ भी नहीं।
साक्षी हॆ-
गांव के बहार खडा
वह बरगद का पेड
हमारी मलाकातों का
जिसके नीचे बॆठ
तपती दोपहरी में
भविष्य के सुनहरे स्वपन बुनते थे।
तुम!चले गये
दुःख हुआ।
लेकिन-
तुम्हारे जाने के बाद
आ गया कोई ऒर
अब लगता हॆ-
मॆं हूं
वो हॆ
ऒर कुछ भी नहीं।
नाटक का सिर्फ
एक पात्र बदला हॆ
बाकि-
वही-मॆं
गांव, बरगद का पेड
तपती दोपहरी
ऒर-
भविष्य के सुनहरे सपने।