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तमाशा / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
तुम भी घिसे-पिटे सिक्के
फेंक कर चले गये?
अफसोस
कि हम इस बार भी छले गये!
देखो-
खोटा सिक्का है न
'धर्म-निरपेक्षता‘ का ?
और दूसरा यह
'सामाजिक न्याय-व्यवस्था‘ का ?
मात्र ये नहीं
और हैं सपाट घिसे काले सिक्के —
'राष्ट्रीय एकता‘ के / 'संविधान-सुरक्षा‘ के
जो तुम इस बार भी
विदूषक के कार्य-कलापों-सम
फेंक कर चले गये!
तुम तो भारत-भाग्य-विधाता थे !
तुमसे तो
चाँदी-सोने के सिक्कों की
की थी उम्मीद,
किन्तु की कैसी मिट्टी पलीद !
अद्भुत अंधेरे तमाशा है
घनघोर निराशा है,
यह किस जनतंत्र-प्रणाली का ढाँचा है ?
जनता के मुँह पर
तड़-तड़ पड़ता तीव्र तमाचा है !