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तमाशा देखो! / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
Kavita Kosh से
जब सारा आकाश राख से पुता हो
सामने तोपंे खखार रही हों
हरीतिमा और नीलिमा कँप् रही हो-आतंक की छाया में।
सिंहासन पर बैठा वह सुर्ख आँखों वाला-
अपने नाख़ूनों को कर रहा है और भी पैना
जबड़े भींचता, दाँत पीसता, जिह्वा लपलपाता।
जब कल्ले में दबाये विष की पोटली
नपुंसक रीढ़विहीन भयातुर सर्प
फन काढ़ लेता है
तो टेढ़ा हो जाता है इन्द्रधनुष
सात रंगों में सजाने लगता है आकाश
झुलाने लगता है अपनी तरंगों को समुद्र
पेड़ों पर नाचने लगते हैं पत्ते।
अपना घूँघट उठा देखता है प्यार
जीवन का रूप।
लोगों का तमाशा देखो!
घड़ियाल ने इतने दिनों बाद अपनी आँखें, सचमुच
रो-रोकर गीली कर ली हैं।
उसे उसी नहर से पड़ा है लौटना
जिससे चलकर एक दिन वह पहुँचा था स्वेज नहर तक।