तलाक़ / मधु गजाधर
तलाक,
कागज का एक टुकड़ा,
तेरे हाथ में, मेरे हाथ में,
तेरे मेरे दस्तखत लिए,
जिसे पाया है आज,
हम दोनों ने,
महीनो.....सालों....
अदालतों के चक्कर लगा कर,
एक दूसरे पर झूठी तोहमतें लगा कर,
कीचड़ उछाल कर,
और, इस घ्रणित काम के लिए,
लुटाई है अपनी महनत की कमाई,
खुले आम अपने रिश्तों को नग्न करने में,
लुटाया है अपना पैसा,
अदालतों के कागजों पर, और, उन वकीलों पर,
जिन्होंने,
शुरू से ही कमर कस ली थी हमें अलग करने की,
ये तुम्हें भी पता है, ये मुझे भी पता है,
और मिल गया है आज,
हम दोनों को, ये कागज का टुकड़ा,
एक सबूत,
कि अब से,
मेरे तुम्हारे बीच कहीं...कुछ नहीं है,
ख़तम हो गया है सब कुछ,
क्या सच ही ?
कहीं कुछ नहीं है, मेरे और तुम्हारे बीच?
मन के अम्बर पर छायी वो यादें,
दिल के कागज पर कभी लिखे वो हर्फ़,
वो इन्तजार, वो मान मुनौवल,
एक दूसरे के बालों में तैरती,
वो उँगलियों कि सरसराहट,
पढ़ लेना एक दूसरे को,
वो आँखों ही आँखों में,
किस अदालत का,
कौन सा कागज का दुकड़ा, बोलो.....
छीन पायगा उन यादों को,
दफना पायगा उन अनमोल क्षणों को,
मिटा पायेगा मेरे जिस्म से तुम्हारे स्पर्श को,
नहीं.... कभी नहीं....
ये तुम्हें भी पता है, ये मुझे भी पता है,
इसलिए चलो,
आज कुछ ऐसा कर डालें,
जो अब से पहले कभी...किसी ने ना किया हो,
आओ,
देर से ही सही,
आज,
मन की अदालत से,
माफ़ कर डालें एक दूसरे को,
फाड़ डालें इस कागज़ के टुकड़े को,
उड़ा डालें हवा में इस की चिन्दियाँ,
हसने दें जमाने को, जलने दें दुनिया को,
और,
हम तुम हाथ में हाथ डाल कर,
आओ, बढ़ चलें अपने उस घर की और,
जिसे कभी हमने, अपने दिल की धडकनों से,
अपनी साँसों की खुशबू से,
और,
अपने होठों की नरमी से सजाया था,
ये तुम्हें भी पता है, ये मुझे भी पता है