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ताकत / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
तना है फटा तिरपाल
उसी की छांव में बैठा
गाँठता जूते-
धूप है जेठ की
जलाती आँच सी
क्या छिपा है
उसकी अतल गहराइयों में
यह कौन कूते।
आया लू का अंधड़
थपेड़ा देकर गया
कनपुटी पर-
कहता है किसान से
लो, पहनो
हुआ है पुराना नया
जब भी फुरसत हुयी
सूँतता बीड़ी
देखता हर तरफ
पिच रहीं कीड़ी।
मारता है टाँके
जैसे सीं रहा हो
अपने समय को
उँगलियों के संकेत है बाँके।
आँखे बहुत छोटी-छोटी
पर बड़ी भेदक
जुबान में कड़क
अपने काम की
भरे विष्वास की
लगता समय बदला
पहचानता है।
उठी आ रही है ताकत
अंधेरे से उजोले की तरफ
अंदर से जानता है।