भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ताज / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिखाबै छै वैभव आपनोॅ सीना तानी केॅ
बनलोॅ जे छै र्इ्र कल रोॅ ताज
सनलोॅ छै खून जेकरा पत्थर में दीन दलित के
बनलोॅ होलोॅ छै हमरोॅ नाज।

इतिहास रोॅ छाती पर खाड़ोॅ
बाहर सें जŸोॅ भरलो ,ॅ भीतर ओतनैं चीत्कार,
हाड़-मांस रोॅ बनलोॅ देह प्रेम रोॅ
देखोॅ कैन्होॅ ई भरलोॅ भव्य पुकार
शान-शौकत रो ई देन छेकै,
अकाल-काल सें मरलोॅ- दबलोॅ
जन-जन के ई चींख छेकै ।

पड़लोॅ छै खून रोॅ छींटा,
ताज रोॅ अमिट शान पर
धिक्कार, सौ बार एैन्हां प्रेम केॅ
हाय ई दाग, शहंशाह रोॅ नाम पर।

बहलोॅ कŸोॅ होलोॅ होतै कहोॅ
भूखला आंखी के लोर
तरी ईट में अभियो दबलोॅ छै
बुतरू-बच्चा के करूण शोर ।

शोशित, दलित, मूक जन अरमान रोॅ
ई ताज अमिट पहचान छेकै,
टूटलोॅ वीणा के तारोॅ में मुखर ई,
छिपलोॅ केकरोॅ गान छेकै ।