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ताज़िया / संजय अलंग
Kavita Kosh से
मेरे कस्बे में ताज़िया
सम्पूर्ण कस्बे की
सामूहिकता को समावेशित करता
वह कस्बा
जहाँ सैफूद्दीन मा’साब झूम कर मानस गाते
पाँचो वक़्त नमाज़ को भी जाते
पूरा कस्बा उमड़ पड़ता
देखता ताज़ियों की शोभा और भव्यता
हबीब को हैरत अंगेज़ तलवार चलाते देख दाद देता
सटीक निशाने से आलू को दो टूक होते देख वाह-वाह करता
बच्चे ताज़ियों के नीचे से गुज़र कर
पास होने की मुराद पूरी होने की करते कामना
बड़े अन्य मुद्दों की
चौक पर कस्बा थम जाता
उमड़ पड़ता शामिल होने को
तब तक न तो हुई थी कोई यात्रा
न ही गिरा था कोई ढ़ाँचा