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ताज़े गुलाब का उन्माद / जगदीश चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
मैंने गुलाब को छुआ
और उसकी पंखुड़ियाँ खिल उठीं
मैंने गुलाब को अधरों से लगाया
और उसकी कोंपलों में ऊष्मा उतर आई।
गुलाब की आँखॊं में वसन्त था
और मेरी आँखॊं में उन्माद
मैंने उसे अपने पास आने का आह्वान दिया
और उसने
अपने कोमल स्पर्श से मेरी धमनियों में
स्नेह की वर्षा उड़ेल दी।
अब गुलाब मेरे रोम-रोम में है
मेरे होठों में है
मेरी बाहों में है
और उसकी रक्तिम आभा
आकाश में फैल गई है
और
बिखेर गई है मादक सुगन्ध
अवयवों में
और उगते सूरज की मुस्कुराहट में।