भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ताल से तीर पर / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
ताल से तीर पर, तीर से मेरु पर,
अब किधर, किस शिखर ले चलोगे, कहो!
थी तराई जहाँ, मन निडर था वहाँ,
राह थी सामने, देखता मैं चला;
अब चढ़ाई यहाँ, हर क़दम डर जहाँ,
आँख बाँधे बढ़ूँ किस तरफ़ मैं, भला?
आँख होती खुली, साफ़ मैं देखता
था कहाँ, अब कहाँ, हूँ कहाँ जा रहा;
पर, तुम्हीं डर गए देख गहराइयाँ
मैं कहीं डर न जाऊँ, गिरूँ ढलमला;
डाल दीं आँख पर मेघ की पट्टियाँ,
बिजलियाँ बन, मगर, कब बलोगे, कहो!