भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तालाब के ठूंठ / संध्या पेडणेकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिल लगा कर जाना है
अकेले ही आख़िर जीना है
अकेले आना है
अकेले जाना है
मेले है सब राह के
न सुख के
न दुःख के
न हास के न परिहास के
तालाब के हैं सब ठूँठ
झीनी लहर पर सरकते
पास आते और घिसटकर जाते
उफ़ान नहीं तालाब में
पानी भरे लबालब
तो स्थिर रह कर गुज़र जाने देते
ऊपर ही ऊपर
डूबते-उतराते
न मिलने की आस
न बिछुड़ने का दुःख
आदमी हैं यहाँ सब
तालाब के ठूँठ