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तिलक, चेहरे और आईना / तरुण
Kavita Kosh से
तिलक तो लगता है चेहरे के ब्राण्ड से,
और भाल की चमक-दमक के हिसाब से,
और कुछ लगाने वाले की उँगलियों पर भी तो है निर्भर,
आईना भी तो कम्बख्त हिलता रहता है थर-थर,
मशीनी जिंदगी है, सौ काम रहते हैं फिर-फिर,
और एक तिलक लगाने का काम ही तो नहीं है आखिर!
सेहरा बाँधना, तिलक लगाना
यह कोई आसक्ति नहीं-
यह तो मात्र नियुक्ति है-
ऊँची जन-कुर्सी पर!
1978