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तीन / नवीन रांगियाल

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एक लड़की थी
अक्सर अपने हाथ में टिश्यू पेपर रखे हुए
ख़ुश होने का ड्रामा करती थी
किताबों के पीछे सोख लेती थी अपने आंसू
और बुहार लेती थी सारे दुःख अपनी काया से

जैसे गमले की सूखी मिट्टी की परत
उलट- पलट कर दे कोई
अपनी आंखों में ठीक उसी तरह
बनाए रखती थी नमी

एक लड़की बादल- बादल सी
थोड़ा सा रूमानी
उसके पहलू में प्रेम था कहीं
नेपथ्य में था एक छोटा सा बेटा
कुछ त या त्र से नाम रहा होगा शायद

एक था फौजी
लेकिन नर्म मिज़ाज
नाज़ुक- नाज़ुक शे'र कहता था धीमे- धीमे
शायरी की गंध उसके कपड़ों पर महकती थी

सुना है कल दोपहर
एक कविता सुनकर तीनों रोये थे कमरे में
फिर कुछ देर बाद
वो कविता उनके दुःख में तब्दील हो गई
उन्होंने कविता को दुःख से
और दुःख को कविता से रौंद दिया था

उस दिन एक ही वक़्त में उन्होंने कई चीजों के लिए विलाप किये
इस तरह उन्होंने अपने दुःख को थोड़ा सा कम करने कोशिश की

कमरे से बाहर आने से पहले
उन्होंने अपने आँसू हेयर ड्रायर से सुखा लिए थे
कविता अब भी वहीं कमरे में थी मौज़ूद
उनके सारे दुःख उनकी ज़िंदगी में आरक्षित नही थे

फिर भी पूरी बेशर्मी के साथ
बे-टिकट उनके साथ दिल्ली लौट गए उनके सारे दुःख