भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तीन सवाल / ग्युण्टर ग्रास / उज्ज्वल भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
कैसे मैं,
जहाँ ख़ौफ़ के मारे पत्थर हो जाना चाहिए,
हंस सकता हूँ,
सुबह नाश्ता करते हुए हंस सकता हूँ ?
कैसे मैं
जहाँ कूड़ा, सिर्फ़ कूड़ा ही फैलता जा रहा है,
इलसेबिल की – चूँकि वह सुन्दर है –
और सुन्दरता की बाते करूँ ?
कैसे मैं,
जहाँ कि उस तस्वीर में पसारे हाथ को
अन्त तक चावल नहीं मिलता,
रसोइये के बारे में लिखूँ :
कैसे वह मुर्ग-मुसल्लम को भरता है ?
भरपेट लोग भूख हड़ताल पर हैं.
ख़ूबसूरत : कूड़ा ।
हंसते-हंसते लोट-पोट हम ।
मैं ढूँढ़ता हूँ एक लफ़्ज़ शर्म की ख़ातिर ।
मूल जर्मन से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य