भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुझ रूख़ का रंग देख ख़जिल है चमन में गुल / 'सिराज' औरंगाबादी
Kavita Kosh से
तुझ रूख़ का रंग देख ख़जिल है चमन में गुल
जलता है सोज़-ए-रश्क सीं हर फूलबन में गुल
वो शोख़ गुल-एज़ार हुआ जब सीं जलवा-गर
है बे-विकार तब सीं हर इक अंजुमन में गुल
मुझ दाग़-ए-दिल के रश्क सती झड़ गए हैं सब
हरगिज़ नहीं रहा है बहिश्त-ए-अदन में गुल
उस गुल-बदन की याद में जो कोई कि जी दिया
तकफ़ीं के वक्त चाहिए उस के कफ़न में गुल
आता है जब ख़याल-ए-हम-आग़ोशी-ए-सनम
सिलता है मिस्ल-ए-ख़ार मिरे पैरहन में गुल
है अंदलीब-ए-दिल कूँ वो गुल-रू की आरज़ू
ज़ाहिर है जिस की ज़ुल्फ़ की हर हर शिकन में गुल
सैर-ए-चमन का ज़ौक़ मुझे कब है ऐ ‘सिराज’
हर बैत-ए-ताज़ा है मिरे बाग़-ए-सुख़न में गुल