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तुम अब स्मृति हो / लीलाधर जगूड़ी

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पूरे जंगल भर के पखेरू थे तुम्‍हारे अकेले प्राण
जो इतने पंख गिरा गये
चारों ओर तुम्‍हारी ही तुम्‍हारी फड़फड़ाहट है

नदी के दोनों ओर जैसे मेला जुड़ा हो
तुम्‍हारे दोनों ओर फूल ही फूल हैं

लोहे के गर्डरों जैसे भारी लग रहे हैं
पार्थिव पंख
जबकि इनसे तुमने कितनी कोमल उड़ाने उड़ी हैं
जाग्रत के मुकाबले तुम्‍हारे सोये हुए चेहरे पर ख्‍याल
(जैसे एक काम काजी पंछी का पंखों से पुँछा चेहरा)

तुम्‍हारे गमलों में समाये बाग
जीवित और स्‍तब्‍ध
लेटी हो एक नदी की तरह
तुम्‍हारे दोनों ओर फूल ही फूल हैं

तुम अब यहाँ नहीं हो न अपने कमरे में
न अपने कपड़ों में न अपने शरीर में
कहीं नहीं
तुम अब स्‍मृति हो

तुम्‍हारी पचासों चीजें अंदर हैं
कोई भी छुयेगा तो वे सक्रिय हो उठेंगी
तुम अब वैसे आओगी
कोहरे में से आती है जैसे बिगुल की आवाज

तुम्‍हारे रहने से
एक अच्‍छी घर की तरह सजा हुआ था
तुम्‍हारा शरीर
तुम्‍हारी वजह से अँधेरा भी मँजा हुआ रहता था
जैसे आत्‍मा किसी काँच के पात्र में हो

बिना खोले हुए कोई खुशबू
इस बर्तन में से गायब हो गयी है
रात अँधेरे के मुँह से मुँह सटाये हुए
ताजे और नम फूल तुम्‍हारे दोनों ओर फैले हुए हैं

मैं तुमसे नहीं स्‍वयं से भागा हूँ
अजीब अभागा हूँ
तुम्‍हारे प्रिय अशोक के पत्ते
दुबारा हिले शोक में
सूनापन तिबारा दिखा मुझे

तुम नदी की तरह लेटी हो
और तुम्‍हारे दोनों ओर फूल ही फूल हैं।