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तुम एक अजाना सपना / अजय कुमार

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तुम एक
अजाना सपना
जैसे एक रंगीन
खुल गया छाता
मैं कैसे बच पाता

परछाइयाँ पुरानी
सब टूटी
और बिखर गईं
नील झील
मन दर्पण में
छवि बनी
और सँवर गई
 
बूँदों से धरती का
ज्यों फिर से नया नाता
मैं कैसे न रसमसाता

आवारा बादल को जैसे
एक बिजली ने था छुआ
रखी बाँसुरी को जैसे
पागल हवा ने फूँक दिया

तितली के पंख- सा
एक खत था फड़फड़ाता
दिल कैसे न पढ़ पाता

इंद्रधनुषी दिन हुए
शामें अब मनरंगी
बहती नदी- सा
वक्त हुआ यह
मदहोश और अतरंगी

केसर छुटे निमंत्रण को
कोई कैसे फिर ठुकराता
मेहरबान हो जब
मौसम इतना
मैं क्यूँ नहीं इतराता

तुम एक अजाना सपना.....