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तुम कवि हो कवि की तरह रहो / चन्द्र

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तुम कवि हो कवि की तरह रहो
तुम्हारी कविताएँ मैंने नहीं पढ़ीं

तुम उड़ते हो बहुत कल्पनाओं में
तुम्हारा यथार्थ कहाँ जाता है ? भाड़ में ?

मैं कुदाल चलाता हूँ जिस भूमि पर
मैं अनाज बोता हूँ जिस भूमि पर
भूमि के दम से तुम्हारी कविताओं को
बल मिलता है
उस भूमि की बात नहीं लिखते और कहते हो कि मैं कवि हूँ,

जबकि देश की तमाम जनता
भयानक आग में जलकर मर रही है
और तुम
राजा महाराजाओं की टोलियों में
रँगरेलियाँ मना रहे हो ?

तुम्हें एक हाथ में पकड़नी चाहिए कुदाल
और एक हाथ में क़लम
पर तुम एक हाथ में पकड़े हो किसी की नाभी
और दूसरे हाथ से पकड़े हो हत्यारिन सत्ता की चाभी !

कवि ! मैं तुम्हारे कवि होने पर थूकता हूँ,
मैं तुम्हारे मानव होने पर थूकता हूँ
इसलिए कि तुम भोग-विलास की बात लिखते हो
उस चाम समाज की बात लिखते हो
जो चाम समाज अघाया हुआ है,

और मैं भात-भात रटते हुए
पेट के बल गिरकर चुपचाप मर रहा हूँ ...

मैं क्या झूठ कह रहा हूँ ?
क्या मैला-कचरा भरा पड़ा है मेरे दिमाग में ?
मैं कोई कुत्ता हूँ ?
नहीं, नहीं ...

मैं खटता हूँ
लड़ता हूंँ मिट्टी और कुदाली से
दिन-रात चीख़ता हूँ
कविता मैं थोड़े ही लिखता हूँ
ख़ुद मेरी ज़मीन लिखती है ।

मेरी कलाहीन कविताएँ
यहीं कहीं खेतों में
मज़दूरी करतीं हैं ।

बड़ी मेहनत से
बड़ी मेहनत से जब चुटकी भर नमक
और अँजुरी भर पिसान के लिए
कुछ पैसा मजूरी में मिल जाता है

तो चुटकी भर नमक और अँजुरी भर पिसान
माँ को देता हूँ ।
माँ कविता नहीं लिखती
रोटी सेंकती है तवे पर
और मेरे सँग वीर मरदानी की तरह
कुदाल भी चलाती है ।

मैं कविता नहीं लिख सकता
केवल तुम ही कविता लिख सकते हो

लिखो लिखो लिखोऽऽऽ ...।

मैं कलाहीन कवि दोगलों कवियों की तरह नहीं लिखना चाहता,
एक बीमार मरती हुई माई और खाट पर पड़े हुए पिताजी की
दुखद सम्वेदनाओं पर हग-मूत कर
उन्हें छोड़कर
मैं नहीं जाना चाहता
कहीं विदेश में धन-दौलत कमाने
और अय्याशियों के महलों में ज़िन्दा मुर्दा लाशों की तरह कविताएँ लिखने ।

मैं अपनी मिट्टी का सेवक बनना चाहता हूँ,
कृषक बनना चाहता हूँ,
मज़दूर बनना चाहता हूँ,
चिड़ियों को दाना डालना चाहता हूँ,
गाय-बैलों को चारा खिलाना चाहता हूँ,
इस कपिली नदी में नाव चलाना चाहता हूँ ।

मैं इसी कपिली नदी में
हज़ारों ऐसी कविताएँ काग़ज़ पर लिखकर
उन काग़ज़ों की नाव बनाकर
बहा देना चाहता हूँ ...।