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तुम कुछ हो / केदारनाथ अग्रवाल
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तुम भी कुछ हो
लेकिन जो हो
वह कलियों में-
रूप-गंध की लगी गाँठ है
जिसे उजाला
धीरे-धीरे खोल रहा है।
रचनाकाल: २५-०३-१९५८