तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम? / कविता भट्ट
दुःख-भरे मन की अँधेरी सीमा में
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
सूने निर्जल दृगों की श्वेत पृष्ठभूमि पर
भूरी पुतलियों के आस-पास
पीड़ा की अपरिचित गहनता से बर्बर
कंपित रक्तरंजित रेखाएँ उभरी सकुचाकर
इन असंख्य ज्वालाओं की चीत्कारों में
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
मन का विवश नीरव बीहड़
युगों से प्रतीक्षित मधुर हास
दीर्घावधि से मचल रहा था
पाने को कोई उद्वेलन-संवेदन
किन्तु, अब ये सब कहाँ हो पाएगा
उम्र के इस मध्यान्तर में
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
कायाओं का है मोहपाश
सम्बन्धों का वासना-लिप्त
अत्यंत संकीर्ण किंतु, विस्तृत आकाश
जिसमें तुम खोना चाहते हो उड़कर
अपरिभाषित सम्बन्धों की इस भूल-भुलैया में
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
बीते कल में थे मुझसे अपरिचित
आने वाला भी काला है कल
मुख मोड़ चुके जैसे मुझसे सब
तुम भी मुझसे नैन चुराओगे
फिर क्यों ? यह मृगतृष्णा-दीर्घ लिप्साएँ
स्वप्नों के इस बंजर रेगिस्तान में
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
आधी सदी से बैठी हूँ इन संकरी राहों में
टकटकी लगाए देख रही हूँ
पवित्र प्रेम के गठबंधन की राहें
बिना दाँव जो निस्वार्थ हो
अब मन अविचल शैल बन चुका
निरुत्तर, निःसंवेदन और स्थिर
इस अभाव और सूनेपन में
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?
अपराजिता के गंभीर पीड़ायुक्त हास में
या भटके हुए हृदय के सूक्ष्म प्रवास में
तितर-बितर जीवन- शैली के
उथल-पुथल होते विश्वास में
पुरुषत्व की ऊँची वर्जनाओं में
कुछ स्नेह क्या तुम पाओगे?
ये तो पागलपन है
तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?