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तुम चलो या मत चलो कानून से / विनय मिश्र

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तुम चलो या मत चलो कानून से ।
पर डरो इस वक़्त अफ़लातून से ।

कुछ न कुछ तो गर्म होगी ज़िंदगी,
बुन रहा हूँ बेबसी के ऊन से ।

उसको मेंहदी की ज़रूरत क्यों पड़े,
हाथ जो रँगता है मेरे ख़ून से ।

ज़ुल्म के मेलों की रंगत देखिए,
ज़ख़्म भी उड़ने लगे बैलून से ।

फ़लसफ़ों की जान कैसे हो गई,
बात जो ग़ायब रही मामून से ।