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तुम चैत्र के वसंत की तरह हो / अज्ञेय

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तुम चैत्र के वसन्त की तरह हो, प्राप्ति से शून्य किन्तु आशा से परिपूरित!
जिस प्रकार चैत्र में पुरानी त्वचा झड़ चुकी होती है, शिशिर का कठोरत्व नष्ट हो चुकता है, विटप-श्रेणियाँ नयी-नयी कोंपलों से भूषित हो उठती हैं, विश्व-भर नयी सृष्टि के मादक आनन्द से भर उठता है-
किन्तु उस सृष्टि के अवतंस, उस आनन्द की सफलता के उच्छ्वास, नये वसन्त कुसुम अभी प्रकट नहीं हो पाते;
उसी प्रकार मैं तुम्हारे शरीर का चिर-नूतन सौन्दर्य देखता हूँ, तुम्हारे अनुराग की ज्योत्स्ना, तुम्हारे प्रेम की दीप्ति-
किन्तु यह सब कुछ होते हुए भी तुम्हें नहीं पाता!
तुम चैत्र के वसन्त की तरह हो, प्राप्ति से शून्य किन्तु आशा से

दिल्ली जेल, 10 अप्रैल, 1933