तुम जले तो भोर आया / लाखन सिंह भदौरिया
1.
मातु की ममता बिलखती छोड़कर, तुम भाग निकले,
बाँटने संसार को, अपना सहज अनुराग निकले,
चार लोगों का समर्पण, विश्व को क्या दान देगा-
था किसे मालूम जैसी तुम धधकती आग निकले?
2.
रात के उस जागरण की अर्चनायें हैं न थोड़ीं,
प्रात लाने की तुम्हारी साधनायें हैं न थोड़ीं,
भोर की तरुणाइयों पर विश्व की आँखें चकित हैं-
यामिनी में रोशनी की रश्मियाँ तुमने निचोड़ीं।
3.
तम किया है क्षार जिसने, वह किरन की ज्योति लाये,
विश्व को पीयूष बाँटा, पर गरल के घूँट पाये,
है किसी में दृष्टि जो व्यक्तित्व की वह दीप्त देखे-
किस तरह से तुम सुबह के सूर्य बन कर मुस्कराये।
4.
आग को ऐसा सहेजा, क्रान्ति फूँकी थी निराली,
वेद की जलती ऋचा से, जिन्दगी ऐसी जला ली,
साधना आलोक की अभिव्यक्तियों में लय हुई यों-
तुम जले तो भोर आया, तुम बुझे तो थी दिवाली।