तुम थोड़े ही हो / ऋचा दीपक कर्पे
कभी-कभी मिल जाते हो मुझे तुम...
आधे-अधूरे... ज़रा से...
कोई अजनबी मिलता है, 
उसकी आँखो में तुम्हारी आँखों की 
चमक होती है...
मैं पल दो पल उसकी आँखों में देख 
तुमसे मिल लेती हूँ...
बस कुछ ही पल...
और लौट आती हूँ ये सोचकर
कि बस आँखें तुम-सी है
तुम थोड़े ही हो...! 
कभी किसी रेस्त्रां में
कोई बैठा होता है पीठ किये मेरी ओर, 
न जाने क्यूं तुम्हारे ही होने का
आभास होता है...
मैं यूँ ही उसे कुछ पूछने के बहाने
बतिया लेती हूँ उससे, 
और लौट आती हूँ, 
खुद ही के पागलपन पर हँसते हुए ...
के बस आभास है तुम्हारा, 
तुम थोड़े ही हो...! 
कभी तो यूँ भी होता है, 
कि कोई साथी कह देता है कुछ ऐसा, 
जो कभी किसी दिन तुमने 
कहा था मुझसे...
और मैं रोमांचित-सी खोई सी
मुस्कुरा देती हूँ अचानक।
वजह पूछने पर टाल जाती हूँ
और समझा देती हूँ खुद को, 
कि केवल बातें हैं तुम्हारी, 
तुम थोड़े ही हो...! 
कभी-कभी मिल जाते हो तुम...
जरा से...आधे-अधूरे। ।
जो काफी है जीने के लिए मेरे...
	
	