तुम धर्म बुहारा करते हो / विमल राजस्थानी
तुम लाख करो जप-तप पूजा
यदि करूणा से दृग भरे नहीं
निश्चय जानो ‘फुलवारी’ के
ये ‘विटप’ रहेंगे हरे नहीं
प्रातः संध्या तुम झूठ-मूठ
क्यों आसन मारा करते हो
सच तो यह है-तुम रोम-रोम-
से ‘धर्म’ बुहारा करते हो
ढोंगी हो तुम, छल-छद्मी हो
क्यों जग को धोखा देते हो
लोभी तो इतने हो कि दुसरों-
का हक भी हर लेते हो
उपदेशों से, तस्वीरों से
नंगी दीवार सजाना क्या
जब-तब उपदेशक बन-बन कर
यों थोथे गाल बजाना क्या
बातें तो करते बड़ी-बड़ी
पर मन सरसों-सा छोटा है
प्रभु के सम्मुख तुम-सा मानव
बस केवल सिक्का खोटा है
मन के पीछे, धन के पीछे
भागे जो बहुत अभागा है
तीनों लोकों में पूजित है-
वह ही जिसने सब त्यागा है
माला के मनके तो पीछे
पहले मन को तू फेर-फेर
होने को हैं प्रभु-द्वार बंद
हो रही देर, हो रही देर