भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम शब्द बनकर उतरते रहे / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे कृष्ण! तुम सुरों की बांसुरी
से बजते रहो मेरे हृदय में
और शब्द बन-बनकर
उतरते रहो भागवत
के पृष्ठों पर।
हे मेरे प्रभु, मेरी आंखों में
करुणा बनकर बरसते जाओ
कि मैं सौ-सौ अपराधों
के लिये अबोधों को
क्षमा कर सकूं
किन्तु चरम सीमा के छोर
पर यन्त्रणाओं और
यातनाओं के विरुद्ध
अन्याय, अत्याचार और
शोषण के विरुद्ध
मेरे स्वरों में हुंकार
बनकर गूंज उठो तुम
मेरी उंगलि पर सुदर्शन
चक्र बनकर
थिरकने लगो कि
पापी जन त्राहि-त्राहि कर
उठे केशव!