तुम हो मेरी सदानीरा / अजय कुमार
जैसे
एक हरहराती हवा
अपने हल्के धक्के से
एक बंद घर की खिड़की को
खोल देती है
जब तब
यूं मेरी नींदों की दराजों से
एक जिद्दी रौशनी की तरह
दाखिल हो जाती हो
तुम हर रोज
जाने कैसे पता लग जाता है तुम्हें कि
मैं आज अनमना हूँ
जरा ज्यादा उदास
एक चिड़िया अपनी चोंच में
झट भर लाती है
तुम्हारा एक नया खत
और मेरा ये निरुद्देश्य एकान्त
बन जाता है
एक बाँसुरी का स्वर
रोज सुबह कोशिश करता हूँ
साबुन के झागों के साथ
धो डालने की
तुम्हारी यादों की
चिपटी हुई खुशबू
अपने बदन से
पर आईना फिर थमा देता है
तुम्हारे ख्यालों का एक और गुलाब
जिसे मैं फिर से
सजा लेता हूँ
एहतियात से
अपने दिन के गुलदान में
मैं
अपना सारा अंधकार
सारा दुख
और सारा अहंकार
रोज गठरियाँ बना-बनाकर
जहाँ सिराता हूँ
तुम्हीं हो मेरी वो
एक सदानीरा नदी