भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमने कहा था / सुदर्शन रत्नाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने कहा था
लौट कर आओगे
मैं वक़्त को मुट्ठी में बाँधे
जीवन की दहलीज़ पर खड़ी
तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही
तुम्हें छूकर आती हवाएँ
मुझे तुम्हारे होने का अहसास
दिलाती रहीं।
मैं दिल के पुलिंदे से
यादें निकालती रही और तुम्हें
दिवास्वप्न में देखती रही
मृगमारीचिका के पीछे
भागते भागते जान पाई
जिस वक़्त को मैंने मुट्ठी में बाँधा था
वह तो कब का
मेरी गिरफ़्त से निकल
मेरे चेहरे की झुरियों में
समा गया है
पर तुम नहीं आए।