भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुमने मुझे दिया सुख नित ही / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने मुझे दिया सुख नित ही, मैंने तुम्हें सताया।
तुमने निर्मल प्रेम दिया, मैंने उसको ठुकराया॥
तुमने अपनी शुद्ध हँसी-सेवासे मुझे हँसाया।
मैंने तुमको तुरत तिरस्कृत कर अविराम रुलाया॥
तुमने सर्व-समर्पण कर मुझको सब भाँति सजाया।
मैंने तुमपर बुरी तरहसे बाग-बाण बरसाया॥
तुमने सदा सहा, अब भी सह रही छोड़ मद-माया।
तुम्हें दुःख देनेमें मैं कर रहा सदा मनभाया॥
इतनेपर भी तुमने मुझको रखा सदा अपनाया।
नहीं तुम्हारे चरणोंकी मैं छूने लायक छाया॥
तुम-सी तुम्हीं एक हो, मुझ-सा मैं हूँ एक अभाया।
रहता सदा तुम्हारे शुचि मधु-रससे मैं सरसाया॥

(दोहा)

नहीं देखना तुम कभी मेरे अगणित दोष।
स्थित निज महिमामें सदा रहना तजकर रोष॥
देना अपने प्रेमका मधुर सुधा-रस-बिंदु।
बने अमृतमय हृदय यह मेरा, जो विष-सिन्धु॥
कहता क्या, मैं कह गया, देख तुम्हें अति खिन्न।
प्रेम-सिन्धुकी हैं सभी ये लहरियाँ विभिन्न॥
इस रस-वारिधिमें सदा डूबी रहो अनन्त।
मिटा सभी प्रतिकूलता, भय-भ्रमका कर अन्त॥