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तुम्हारी अनन्या / वीरेन्द्र कुमार जैन

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कितने महत्त्वहीन हो तुम
इस दुनिया में हर किसी के लिए,
कि जब और किसी से मिलना नहीं होता है,
और कुछ पाना या और कहीं जाना
बाक़ी नहीं रह जाता है,
तो आख़िर तुम तो होते ही हो :
सब कुछ शेष हो जाने पर जो बच रहता है,
वही तुम हो :
इतने सुलभ, कि तुम्हारे पास होने या पाने को
महसूस नहीं किया जा सकता है :
एक उपस्थिति, जो भीतर सदा वर्तमान है,
पर जिससे हर कोई अनजान है :
एक अचूक उत्तर,
जिसे पाने की इच्छा किसी को नहीं :
साँसों से भी समीपतर का एक प्यार और अपनत्व,
जो पहचानने तक में नहीं आता :
एक चेहरा, जो हर किसी का नितान्त
अपना हो सकता है,
अनदेखा ही हर किसी के पीछे छूट गया है :
कोई अपने अन्तर की आरसी को बुझाकर
दुनिया के भड़कीले बाज़ार में
अपने दिल का आईना खोजने को निकल पड़ा है :

लौटकर वह घर नहीं आता,
एक परित्यक्त प्रेतावास में आकर पड़ रहने को मज़बूर होता है...!
आत्मनाश के ख़तरनाक आलिंगन की तलब में
जो बेतहाशा खिंचा जा रहा है;
जो अपने ही से हर पल झूठ बोलकर
अबूझ अन्यत्रताओं में
अपना चैन खोज रहा है :
जो अपने ही विरुद्ध शतरंज खेल रहा है
और षड़यन्त्र रच रहा है,
उसकी तलब में तुम यों कब तक
ग़मगीन और परेशान रहोगे, मेरे प्यार...!

राह-सड़क के पत्थर को कौन कब ठुकराकर
निकल गया, मानी नहीं रखता :
पर लक्षय में जो महल है, वह खंडहर नहीं है,
इसका क्या यक़ीन है...?
नव वधू के आलिंगन से चूककर
जो वासक-सज्जा के तले जा छुपा है,
उस पर कब किसी का ध्यान गया है?
किसको किसका विरह सता रहा है,
काश इसका ज्ञान हो सकता...!

अपनी बाहों में अनायास लिपटे आकाश का अनन्त
जिन्हें तृप्ति नहीं दे सकता,
उन्हें परफ़्यूम की वारांगना गन्ध-लहर में ही
भटकने दो :
बाज़ार की रौनक से खाली हाथ घर लौटने की
आदत से वे कभी बाज़ नहीं आएँगे...!
तुम पास बैठे हो, और कोई,
हर किसी दूर के अनजान आकर्षण की
चका चौंध में खोया है,
तो उसकी तलब में
तुम क्यों उदास होते हो, मेरे भगवान...?
किसी को भी नहीं है यहाँ
तुम्हारी अनन्त और अचूक प्रीति की चाह और पहचान...!

...शून्य में कब से उभर रहा है एक वक्ष,
तुम्हारे निराधार अस्तित्व को धारण करने के लिए :
ढाल दो अपनी ही छाती में अपना सर :
देखो न, तुम्हारी अनन्या, जो केवल तुम्हारी है,
तुम्हेंअपने गर्भ में लीन करके
नया जन्म देने को आकुल है...!

रचनाकाल : 21 मई 1969