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तुम्हारी आँखों का बचपन / जयशंकर प्रसाद

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तुम्हारी आँखों का बचपन !
       खेलता था जब अल्हड़ खेल,
       अजिर के उर में भरा कुलेल,
        हारता था हँस-हँस कर मन,
        आह रे वह व्यतीत जीवन !
तुम्हारी आँखों का बचपन !
         साथ ले सहचर सरस वसन्त,
         चंक्रमण कर्ता मधुर दिगन्त ,
         गूँजता किलकारी निस्वन ,
         पुलक उठता तब मलय-पवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
         स्निग्ध संकेतों में सुकुमार ,
         बिछल, चल थक जाता तब हार,
         छिडकता अपना गीलापन,
         उसी रस में तिरता जीवन.
तुम्हारी आँखों का बचपन !
         आज भी है क्या नित्य किशोर-
         उसी क्रीड़ा में भाव विभोर-
         सरलता का वह अपनापन-
         आज भी है क्या मेरा धन !
                    तुम्हारी आँखों का बचपन !