तुम्हारी कविता / शर्मिष्ठा पाण्डेय
जिस रोज़ मर गए तुम, मेरी मर गयी 'कविता'
बन के फकत ख्याल मेरी रह गयी 'कविता'
आंसू थे मेरे सच्चे तेरे साथ चल दिए
अब, खुश्क आँखों से ये मेरी बहती है 'कविता'
न, तुझसी शिद्दतें कहीं न तड़प, वस्ल की शपा
काँटों की सेज पे, आज भी है अनछुई 'कविता'
कुछ भी कहे बिन तुम जो अचानक चले गए
फिरती है बदहवास सी मेरी आज ये 'कविता'
मेरे किये, सितम वो आते याद अब बहुत
शर्मिंदा अपने किये पे है आज ये 'कविता'
बेइंतिहा है धूप कड़ी, जल रहा बदन
मरती है प्यासी प्यासी मेरी आज ये 'कविता'
सूली पे चढ़ गए हाँ! मसीहा सिफत थे तुम
बस कीलों ही कीलों में जड़ी आज ये 'कविता'
साल, दिन महीने गए मौसमों के साथ
पर, पतझड़ों में आज भी जीती है ये 'कविता'
इंसाफ पसंद है खुदा, माकूल, उसका फैसला
पानी का पानी दूध का है दूध, ये 'कविता'
जो कर दो माफ़ तुम तो दे दे माफ़ी वो खुदा
ढोती है जिंदगी को महज लाश सी 'कविता'
हंसती है, बोलती, निभाती रस्में आज भी
बन के रही अलमारी का खिलौना ये 'कविता'
मैंने सुना है जाने वाले लौटते नहीं
एक मुद्दतों से मेरी नहीं सोयी है 'कविता'
पलकों पे जाले लगने लगे इंतज़ार में
बस, एक टुक, पथराई राह तकती है 'कविता'
तेरे ही दिए नाम तेरे संग मिट चले
छोटी सी एक पहचान को तरसती है 'कविता'
उस दूसरे जहाँ को कहाँ देखा किसी ने
हर एक गुनाह की रखे थाती यहीं 'कविता'