भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी दुनिया में इस तरह / अशोक कुमार पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सिंदूर बनकर
तुम्हारे सिर पर
सवार नहीं होना चाहता हूँ
न डस लेना चाहता हूँ
तुम्हारे क़दमों की उड़ान को

चूड़ियों की ज़ंजीर में
नही जकड़ना चाहता
तुम्हारी कलाईयों की लय
न मंगल-सूत्र बन
झुका देना चाहता हूँ
तुम्हारी उन्नत ग्रीवा
जिसका एक सिरा बँधा ही रहे
घर के खूँटे से

किसी वचन की बर्फ़ में
नही सोखना चाहता
तुम्हारी देह का ताप

बस आँखो से बीजना चाहता हूँ विश्वास
और दाख़िल हो जाना चाहता हू
ख़ामोशी से तुम्हारी दुनिया में
जैसे आँखों में दाख़िल हो जाती है नींद
जैसे नींद में दाख़िल हो जाते हैं स्वप्न
जैसे स्वप्न में दाख़िल हो जाती है बेचैनी
जैसे बेचैनी में दाख़िल हो जाती हैं उम्मीदें
और फिर
झिलमिलाती रहती है उम्र भर