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तुम्हारी बोझिल साँसों की ये धरोहर / धीरेन्द्र अस्थाना
Kavita Kosh से
बीती हुयी जिंदगी
जो थी मेरे हिस्से की ;
जी चुका हूँ,
खुशियों के झूठे
मादक प्याले
पी चुका हूँ!
अब बची हैं जो कुछ
मुट्ठी भर सूखी साँसें;
इनको जीने के लिए,
मरता हूँ हर पल;
कब बीत गया ये क्षणिक
पर लम्बा जीवन!
बीत गया या आने वाला है;
आगत-विगत कल!
अब विवश हूँ!
नहीं ढ़ो पाऊँगा;
तुम्हारी बोझिल
सांसों की ये धरोहर!
अब समेट लो;
अपनी बाँहें फैलाकर;
ये साँसें और जीवन;
जो तुम्हारा है,
कर लो लीन अपने भीतर!!