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तुम्हारी हिन्दी / दिनेश देवघरिया
Kavita Kosh से
माँ की लोरी की थपकियों का
एहसास थी मैं।
पग-पग पर विजय आशीष देते
पिता के भावनाओं के साथ थी मैं।
यौवन के मधुर सपनों के
आलिंगन में भी तो
मैं ही थी।
प्रथम मिलन के
हृदय-स्पन्दन में भी तो
मैं ही थी।
और जब-जब
मेरी उपेक्षा कर
अंग्रेजी में भेजी
तुम्हारी छुट्टी की अर्जी
मंजूर या ना मंजूर हुई
तो तुम्हारे चेहरे के
हर भाव के अंतर्मन में भी
मैं ही तो थी।
तुम चाह कर भी
मेरी उपेक्षा नहीं कर सकते
क्योंकि मैं
केवल भाषा नहीं
तुम्हारी अन्तर आत्मा हूँ।
मैं हिन्दी हूँ।
तुम्हारी हिन्दी।