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तुम्हारे साये-सा अजोर / अशोक शाह

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लूटकर चाँद को पिछली रात
कौन भागा था
छिटकके चाँदनी के टुकड़े
पूरे पस-ए-मंजर पर बिछ गये थे

चाँदनी के दामन पर पडे़
उज्ज्वलतर
धवल पाँवों के निषान
तुम्हारे ही थे न जानम

फ़लक पर चाँद कितना अब
बेरौनक दिखता है
तुम्हारे साये-सा भी अजोर
उसमें नहीं है

तुम लौट आतीं तो
मिट जाता निषीथ तम सदियों का
वगरना सिर्फ़ मरने का नाम
ज़िन्दगी तो नहीं