तुम्हें कोई हक नहीं / राहुल राजेश
( प्रेम के बारे चंद पंक्तियाँ )
तुम्हें कोई हक नहीं
कि तुम इतना रूलाओ
तुम्हें कोई हक नहीं
कि तुम इतना सताओ
तुम्हें कोई हक नहीं
कि तुम इतना तड़पाओ
तुम्हें कोई हक नहीं
कि पहले खूब सारे सपने दिखाओ
फिर कह दो
सपने तो सपने हैं
तुम्हें कोई हक नहीं
कि पहले दिल में आओ
फिर दिल को इतना दुखाओ
तुम्हें कोई हक नहें
कि पहले चाँद तारों की सैर कराओ
फिर सात समंदर पार छोड़ आओ
कि लौटकर ही न आ सकें
तुम्हें कोई हक नहीं
कि पहले रंगों के मायने बताओ
फिर हमारी दुनिया को बदरंग कर जाओ
तुम्हें कोई हक नहीं
कि तुम्हारे नाम पर होता रहे
अरबों-खरबों का व्यापार
और हम होते रहें
तुम्हारे ही खिलाफ़ की गई
साजिशों के शिकार
तुम्हें कोई हक नहीं
कि प्रेम न हाट बिकाय
का पाठ हमें पढ़ाओ
और खुद हाट-बाज़ारों में
खड़े हो जाओ !