तुम्हें भूल जाऊं मुनासिब कहाँ है / प्रदीप कुमार
तुम्हें भूल जाऊँ मुनासिब कहाँ है
बहुत कम हैं ऐसे जो हृदय में रहते हैं
वो भी कहाँ याद रखते हैं जो अपना कहते हैं
मैं कम सिखा पाया ये मैं मानता हूँ
पर तुम कम नहीं सीखे, मैं ये भी जानता हूँ
तुम लहलहाती फसल हो
पर ये भूल न जाना
बारिशें लाजिमी हैं ज़िन्दगी के लिए।
स्वर आरती के मैं गीत गा रहा हूँ
सारा बचपना संग लिए जा रहा हूँ
जरा मुस्कुरा दो ये फरमा रहा हूँ
हुनरमंद हो तुम ये सब कहते हैं
तुम्हें भूल जाऊँ मुनासिब कहाँ है
बहुत कम हैं ऐसे जो हृदय में रहते हैं।
कठपुतली की तरह वह हरकते करना
जरा-सी बात पर इतना डरना
मन की पाक पर सुगलों की रानी
सिखने की ललक बनेगी चिंगारी।
ये ज्योति उम्मीदों की भरेगी उडारी
समझ ले सभी वह जो ग़फलत में रहते हैं
तुम्हें भूल जाऊँ मुनासिब कहाँ है
बहुत कम हैं ऐसे जो हृदय में रहते हैं।
वो सांवली-सी सबको कितना समझती है
करुणामयी देखो फिर जान छिड़कती है।
जानती है बाखूबी सम्मान की भाषा
वो नई उम्मीद नई आशा।
उसके तरकश में सारे तीर रहते हैं
तुम्हें भूल जाऊँ मुनासिब कहाँ है
बहुत कम हैं ऐसे जो हृदय में रहते हैं।
जो मूडी बहुत हैं, बदलते हैं अक्सर
दुआ सलाम ज़रूरी है चाहे मिजाज भुरभुरे से
वो ग्लैमर का तड़का इरादे खुरदरे से
तुम जैसे हो वैसे दिखते कहाँ हो।
वक्त है सितमगर
फिर न कहना तुम हमेशा अकेलापन सहते हो,
तुम्हें भूल जाऊँ मुनासिब कहाँ है
बहुत कम हैं ऐसे जो हृदय में रहते हैं।
वो सातों में सबसे अलग रहता है
अलग है शायद ये हुनर कहता है
लिखता बहुत है इश्क पर वह
चलती-फिरती धुप-छाँव से चेहरा बना लेता है
उसके शब्द बहका लेते हैं अक्सर
और भाव किसी फिराक में रहते हैं
तुम्हे भूल जाऊँ मुनासिब कहाँ है
बहुत कम हैं ऐसे जो हृदय में रहते हैं