तुलसी की रतना / श्यामनन्दन किशोर
लोक-लाज की बलि-वेदी पर चढ़ी हुई असहाय!
अपनी ही बेड़ी में जकड़ी, म्लानमुखी निरुपाय!
वाणी में प्रेरणा और फिर रतना का प्रारब्ध!
निकल पड़े भावों से उच्छल अन्तर्वेधी शब्द!
अन्तर्वेधी शब्द कि जैसे अमृत उफन आया हो!
अन्तर्वेधी शब्द कि ज्यों प्रबला विद्या माया हो!
अन्तर्वेधी शब्द प्यार से, अपनापन के नाते!
पत्नी की मंत्रणा कि पावन जीवन-धन के नाते!
पूर्णचन्द्र को देख कि जैसे सरिता उमग गयी हो!
पवन-परस पा जैसे कोई ज्वाला सुलग गयी हो!
मुरली पर छेड़ा कि किसी ने जैसे भैरव राग!
चन्दन से लिपटा हो जैसे आकर कोई नाग!
सहज खिंचे आना सुवास पर मृदु स्वभाव है अलि का!
तुलसी को विश्वास नहीं था चुभ जायेगी कलिका!
प्रकृत हुई रतना तुलसी की देख मुखाकृति गहरी,
जैसे मुक्ताएँ माला की झटका खाकर बिखरीं!
प्रिय को देख विषण्ण प्रिया का मन अधीर हो डोला!
पलभर में ही वाष्प बन गया जैसे कोई शोला!
किंकर्त्तव्यविमूढ़ न हतप्रभ भाव शब्द बन उमड़ा!
जाने कैसे बन्द हो गया अधर-द्वार का पिंजड़ा!
निश्चेतन हो गयीं भुजाएँ ललक अंक भरने में!
जड़ीभूत हो गयी कि बढ़कर पूज्य पाँव पड़ने में!
पलकें गिरना भूल गयीं ये नयन निरर्थक हुए।
कल तक के सौन्दर्य-चित्र ये आज विकर्षक हुए।
धरती खिसकी पाँव तले की, सिर पर गिरा गगन आ।
उमड़े आँखों में जैसे सावन-भादों के घन आ!
रतना से बिछुड़ा तुलसी का कैसा बाकी जीवन?-
सीपी में जैसे स्वाती के छलक गिरे हों दो कण!
(11.3.64)