भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तू अगर / अमरजीत कौंके

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

( विदेश में रहते कामरेड दोस्त के लिये )

 
तू अगर अँधेरे में से
रास्ता तलाश कर
रौशनी में आ गया
यह न सोच
कि दुनिया बदल गई
यह ना सोच
कि इन्कलाब आ गया

अभी भी है पृथ्वी
दुखों से भरी हुई
अभी भी
रोटी से भूखे पेट बिलखते
अभी भी है
लूट जारी है मेहनत की
अभी भी
बेबस हाथों से अभी भी
अरमान पिफसलते

आज भी
नंगे जिस्मों को ढकने के लिए
कपड़े नही
पपड़ी जमे होंठों के लिए
नीर नहीं
आज भी बच्चों के हाथ में पकड़े कौर
कौए छीन के ले जाते
आज भी झपटती चीलें
मासूम चिड़ियों पर
आज भी बाज
बगुलों को उठा ले जाते...

जो दुनियां
तू पीछे छोड़ आया
वहाँ आज भी
जहालत का डेरा है
तुझे रौशनी की चकाचैंध् में
बेशक दिखता नहीं
 
लेकिन वहाँ आज भी
गाढ़ी कालिख का बसेरा है

तू अगर अँधेरे में से
रास्ता तलाश कर
रौशनी में आ गया
यह न सोच
कि दुनिया बदल गई
यह न सोच
कि इन्कलाब आ गया।