भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू एकाकी तो गुनहगार / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
तू एकाकी तो गुनहगार।
अपने पर होकर दयावान
तू करता अपने अश्रुपान,
जब खड़ा माँगता दग्ध विश्व तेरे नयनों की सजल धार।
तू एकाकी तो गुनहगार।
अपने अंतस्तल की कराह
पर तू करता है त्राहि-त्राहि,
जब ध्वनित धरणि पर, अम्बर में चिर-विकल विश्व का चीत्कार।
तू एकाकी तो गुनहगार।
तू अपने में ही हुआ लीन,
बस इसीलिए तू दृष्टिहीन,
इससे ही एकाकी-मलीन,
इससे ही जीवन-ज्योति-क्षीण;
अपने से बाहर निकल देख है खड़ा विश्व बाहें पसार।
तू एकाकी तो गुनहगार।