भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तू रौशनी की तरह / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
Kavita Kosh से
तू खिड़की में आई मैं जाने क्या सोचता रहा
तू मेरे हाथों में आई और मैं न जाने कहाँ रहा
तू मेरे आँगन में बिखर गई
और मैं दौड़ाता रहा दिन भर बाइक
तू रोशनी की तरह मेरे पीछे आती रही
और मैं शहर की सी हडबडी में कुछ न देख पाया
धोखे से मैं जिस पेड़ के नीचे ठहरा था
तू उसी क्षण छाँव बन गई थी
मैं टेबल पर था तू छोटा-सा काग़ज़ बनी
जिस पर मैंने ज़रूरी नम्बर लिखा था
जब पेन की स्याही ख़त्म हुई
तू मेरे हस्ताक्षर के लिए थोड़ी स्याही बनी
विदा का समय आ गया
तू जहाँ जहाँ मेरे साथ थी
तेरे कदम रोशनी से दमक रहे हैं