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तूतनख़ामेन के लिए-21 / सुधीर सक्सेना

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जुबान दी होती

गर

विधाता ने

इन नौकाओं को

एक भी क्षण के लिए


समवेत स्वरों में गुहारतीं ये


बख़्श दो,

बख़्श दो हमें,

तूतनखामेन !


चिल्लाती नौकाएँ ये--

जल से विलग न करो

हम काठ की मछलियों को


शायद,

तुम तरस खा जाते

तूतनखामेन !


बख़्श देते

ख़ता उनकी

छोड़ देते उन्हें हहराती लहरों में


ऎसे में

कम से कम

कुछ देर को सही

हरे हो जाते

काठ की नौकाओं के

ठूँठ हो गए सपने ।