तूफ़ान / महेन्द्र भटनागर
समय संक्रांति का,
असफल निराशा का,
अधूरे स्वप्न ले मानव,
अधीर अशांति में
प्रतिपल विकल साँसें,
दमन के दिन
रहे हैं गिन,
रहे हैं गिन।
मिटा समुदाय सारा
खा गया है ज़ंग,
दीमक और फोड़ों से
हुआ जर्जर, हुआ जर्जर !
बिगड़ दोनों गये हैं लंग्स।
हिंसक और भक्षक
व्यक्ति का भीषण,
शुरू अब हो गया है नाच,
नंगा नाच !
जिसके पैर के नीचे
मनुजता का दबा है वक्ष,
क्रन्दन की पुकारें और आहें
बन रहीं
तबलों-मजीरों की घमक,
निर्दय कुचलता जा रहा है
आज !
पैरों से मसलता जा रहा है
आज !
दोनों हाथ जो अपने
डुबोकर रक्त में
होली मनाए,
क्रूर भूतों-सी हँसी हँसता
ज़मीं पर
वार कर हर बार
निर्मम बन
गिराता है रुधिर की धार !
सारा लाल है संसार !
सारा चीखता संसार
रो-रो आह भरकर आज
देखो बढ़ रहा तूफ़ान !
करने विश्व को आज़ाद,
देने को नया जीवन,
बसाने साम्य की दुनिया
मिटाने दुःख की घड़ियाँ !
युगों की
सख़्त काली लौह की कड़ियाँ
बजीं झन-झन,
बजीं झन-झन !
हुईं सब ग्रन्थियाँ ढीली,
खुले बंधन !
कि बोला अब नया इंसान —
जनता राज ज़िन्दाबाद,
जनता को मिले अधिकार !’
सारे विश्व में
स्वातन्त्र्य झंझावात
बहता तोड़ता
प्राचीन-चिन्तन बाँध,
राजा, काल्पनिक भगवान, डिक्टेटर
हुक़ूमत के ज़माने के
कफ़न पर कील अन्तिम
ठुक चुकी है आज।
जीवन जागरण के गान के स्वर
विश्व के प्रत्येक कोने से
सुनायी दे रहे हैं आज !
आया मुक्ति का तूफ़ान !
पूरे हो रहे अरमान !
अभिनन्दन !
प्रगति की शक्तियाँ सारी
तुम्हारे साथ !
दुर्दम मुक्ति का तूफ़ान !
निश्चय जीत का वरदान !
बढ़ता आ रहा तूफ़ान !