तृष्णाओ का नृत्य / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
कहाँ ठीक से अपने अब तक हमने झाँका है ?
मन-मन्दिर है नहीं मोह-ममता का केवल खाका है ।
बाहर-बाहर उपदेशों के भव्य आवरण चढे हुए,
भीतर-भीतर तृष्णाओं का नृत्य चल रहा बाँका है ।
मन्द दिये में पढते-पढते मन्द हो गये दृग उसके,
पर समीक्षकों ने प्रतिभा को ठीक-ठीक कब आँका है ?
भूमण्डलीकरण का युग है रही दूरियाँ अब न कहीं-
इन्टरनेट कम्प्यूटर ने कुछ ऐसा किया धमाका है ।
आदर्शों का हुआ विसर्जन नैतिकता के श्राद्ध हुए,
पोषण होता ध्वंसध्सर्मिणी यन्त्र शक्ति अधमा का है ।
गुलदानों में फूल कागजी विरस शुष्क से सजे हुए,
मौलिकता सब अस्त हो गयी कृत्रिम रूप् प्रभा का है ।
उगल रहीं चिमनियाँ धूम के घन अम्बर में घुमड रहे
फहराये हर ओर प्रदूषण अपनी विजय-पताका है ।
घोर स्वार्थ का ज्वार उठा है पर दुख पर पाषाण बने,
भाव रंच भी कहाँ रह गया मन में आज दया का है ?