तेइसवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
ओ, युग के भगवान! आज तुमको युग का शत-शत प्रणाम है।
विगत युगों की गहन अँधेरी अर्द्ध निशा के अन्धकार में,
दानवता से पीड़ित मानवता की सकरुण चीत्कार में;
विश्व-व्योम के शून्य अंक में, गर्जन करते प्रलय-घनों में,
बड़वानल-प्रज्ज्वलित क्षुब्ध सागर की तूफानी लहरों में;
बापू! तुम अवतरित हुए ले अरुणिमा रवि की प्रथम रश्मियाँ,
श्वासों में विश्वासों में ले स्वर्णिम युग की भाव-उर्मियाँ;
ओ, युग के वरदान! आज युग का तुमको शत-शत प्रणाम है।
ओ, युग के भगवान! आज युग का तुमको शत-शत प्रणाम है॥
परिवर्तन प्रारम्भ हुआ युग का प्रकाश की लहरें पाकर,
मुरझाए-अधखिले खिले मृदु फूल, मिले भौंरे गा-गाकर;
डाल-डाल पर बैठ विहग-बालाओ ने स्वच्छन्द स्वरो में,
नव-युग के नव गीत सुनाए, कल-कल सरिता की लहरों में;
जाग उठा संसार, जागरण की वीणा के तारों में मिल,
अन्धकार से मुक्त धरणि का अंचल करता झिलमिल-झिलमिल;
ओ, युग के कल्याण! आज युग का तुमको शत-शत प्रणाम है।
ओ, युग के भगवान! आज युग का तुमको शत-शत प्रणाम है॥
आया वह मध्याह्न, बरसने लगी अग्नि की लपटें भीषण,
बहने लगा पवन पागल हो, जलने लगा प्रकृति का कण-कण;
त्रस्त हुआ सम्पूर्ण विश्व, मानव के दानव ने मुँह खोला,
जन-जन का मन डोल उठा, लेकिन जनता का देव न डोला;
खड़ा हिमाचल-सदृश अचल, हिम बरसाया मीठी बोली में,
शांत किया युग की लपटों को स्वयं शांत होकर गोली में;
ओ, युग के बलिदान! आज युग का तुमको शत-शत प्रणाम है॥
ओ, युग के भगवान! आज युग का तुमको शत-शत प्रणाम है॥